October 05, 2024

90's Kids favorite tv serial shaktimaan

90's kids favorite tv Serial shaktimaan/बचपन की यादे/मेरा पसंदीदा TV सीरीयल शक्तिमान


मेरे साथ जो भी इस पोस्ट को पढ़ रहे है उन्हे इसे पढ़ने के बाद जरूर अपने बचपन की याद आ जाएगी। कैसे हम सब पूरे सप्ताह शक्तिमान टीवी सीरीयल का बेसबरी से इंतेजार किया करते थे। यह टीवी सीरीयल बच्चो का सबसे पसंदीदा होता था, क्योंकि शक्तिमान भारत का पहला सुपर हीरो जो था जिसने बच्चो के साथ-साथ बड़े बुजुर्गो पर भी अपना काफी प्रभाव डाला था। सभी उम्र के लोग काफी इस सीरीयल को पंसंद करते थे।

शक्तिमान टीवी सीरीयल की शुरूआत

मैं आपको बता दूं की, 90 के दशक में लगभग सभी देशो ने अपन-अपने सुपर हीरो को टीवी पर लॉंच कर दिया था! लेकिन अभी तक हमारे पास कोई भी सुपर हीरो नही था। अब समय आ चुका था, अपने सुपर हीरो को लॉंच करने का। शक्तिमान का पहला एपिसोड 13 सितंबर 1997 को दुरदर्शन पर प्रसारित किया गया। धीरे-धीरे शक्तिमान लोगो के बीच प्रचलित होने लगा। शुरूआत में यह शनिवार को सुबह 9 बजे और मंगलवार को रात को रिपीट टेल्कास्ट प्रसारित किया जाता था। शनिवार का दिन होने के कारण बच्चे इस शो का मजा नही ले पाते थे। इसका प्रचलन ब्च्चो में ऐसा था कि ब्च्चे शक्तिमान देखने के चक्कर में शनिवार को स्कूल भी नही जाते थे, इन सब बातो को ध्यान में रखते हुए बाद में शक्तिमान के प्रसारण का समय और दिन बदलकर रविवार को दोपहर में 12 बदे कर दिया गया। इससे फायदा यह हुआ कि अब बच्चे भी इसका आनंद ले सकते थे।


शक्तिमान को देखने के लिए बच्चो के साथ घर के अन्य सदस्य भी पूरा सप्ताह इंतेजार किया करते थे। क्योंकि इस टीवी सीरीयल ने बहुत ही कम समय में ही लोगो के बीच अपनी एक खास जगह बना ली थी। जब शक्तिमान शुरू होता तब गलिया सुनसान हो जाया करती थी उस समय लोग एक दूसरे के यहां जाकर इस सीरीयल को देखते थे।

शक्तिमान सीरीयल के अंत में बच्चो के लिए अलग से 10 मिनट की ज्ञानवर्धक संदेश खुद शक्तिमान दिया करता था, जिसे 'छोटी-छोटी मगर मोटी बाते' कही जाती थी। इसमें बच्चो को अच्छी आदतो के बारे में शक्तिमान समझाता था।
लोगो के बीच यह सीरीयल काफी फेमस हुआ। उस समय शक्तिमान के मैगेजिन और कॉमिक्स भी काफी प्रचलन में था। 

शक्तिमान टीवी सीरीयल के मुख्य विषय

इस टीवी सीरीयल में यह दिखाया गया कि, अच्छाई हमेशा बुराई पर जीत हासिल करती है। बुराई का प्रतीक तमराज किलविश जो समाज में बुराई फैलाना चाहता था, इसलिए उसने 'अंधेरा कायम रहे' का नारा दिया और अंधेरे के नुमाईदो को दुनिया में बुराई फैलाने के लिए समाज में छोड़ रखा था! तथा समय-समय पर बुरी शक्तियो जैसे- कपाला, किटानुमैन, जोंक-जोंका, प्लास्टिकमैन, सैतानी बिल्ली इसके अलावा और बहुत सी शैतानी ताकते थी जिसे तमराज किलविश हमेशा शक्तिमान को मिटाने के लिए भेजा करता था! लेकिन हर बार शक्तिमान इन सबको खत्म कर देता था
वही डॉ. जैकॉल समय-समय पर अपने शैतानी आविष्कार करके दुनिया में तबाही मचाने की कोशीश किया करता था।

शक्तिमान की एक खास बात यह थी की जितने भी सुपर हीरो हुए है उन्हे किसी ने शक्ति पद्रान की है तो किसी के पास जादुई अंगूठी है तो कोई पत्थर छूकर पावर लेता है। इन सबके विपरीत शक्तिमान को उसकी शक्तिया पंच तत्व और गहन साधना करने से प्राप्त हुई है, जो कि दिलचस्प बात है।

शक्तिमान टीवी सीरीयल के मुख्य किरदार

मुकेश खन्ना - पंडित गंगाधर, शक्तिमान
मुकेश खन्ना ने शक्तिमान का मुख्य किरदार निभाया था, जो लोगो को काफी पसंद भी आया, और आए भी क्यों ना आखिरकार शक्तिमान भारत का पहला सुपर हीरो जो था। इसमे मुकेश खन्ना ने एक साथ दो किरदार निभए थे, पहला पंडित गंगाधर का! जो समाज में लोगो के बीच एक आम इंसानो की तरह रहा करता था, और पत्रकार के रूप एक ऑफिस में गीता विश्वाश के साथ शक्तिमान की खबरे लाया करता था। 
दूसरे किरदार मे शक्तिमान लोगो की मदद के लिए आता था और उनको मुसीबत से दूर करता था।

वैष्नवी महंत - गीता विश्वाश
शक्तिमान के शुरूआती कुछ एपिसोड में गीता विश्वाश का किरदार किट्टू गिरवानी ने निभाया था। बाद में गीता विश्वाश का किरदार के लिए वैष्नवी महंत को चुना गया। इन्होने गीता विश्वाश का किरदार बखुबी निभाया और यह गीता विश्वाश के रूप में प्रसिद्ध हो गई।

सुरेंद्र पाल - तमराज किलविश
तमराज किलविश, जो समाज में पाप को फैलाने की हर नाकाम कोशिश किया करता था। इसलिए रह-रह कर अपने नुमाईदो को दुनिया में बुराई फैलाने के लिए भेजा करता था। तमराज किलविश का एक डायलॉग जो लोगो के बीच काफी फेमस हुआ और आज भी फेमस है 'अंधेरा कायम रहे'।

ललित परिमो - डॉ. जैकॉल
डॉ़ जैकॉल अंधेरे का ही एक शैतान वैज्ञानिक था, जिसे तमराज किलविश ने अपना गुलाम बना रखा था। यह हर समय अपना शैतानी प्रयोग करके जोंक-जोका, प्लास्टिकमैन, किटानुमैन आदि को बनाया करका था और दुनिया में बुराई फैलाने के लिए उसे संसार में भेजा करता था। इसका एक प्रसिद्ध डॉयलॉग आज भी लोगो के जुबा पर है, 'पावर'।


टॉम अलटर - सूर्यांशीयो का गुरू
सूर्यांशीयो के गुरू के रूप में टॉम अलटर ने यह किरदार बखुबी निभाया था। इन्होने  ही शक्तिमान को दिव्य शक्तिया प्राप्त करने में सहायता की थी।

रमण खत्री - साहेब उर्फ कुमार रंजन
साहेब उर्फ कुमार रंजन की एंट्री शक्तिमान में बहुत बाद में हुई थी। यह भी अंधेरे का एक नुमाइदा था, जिसे तमराज किलविश ने दुनिया में पाप फैलाने के लिए रखा था। साहेब और गीता विश्वाश में काफी अच्छी दोस्ती हो गई थी, लेकिन गीता विश्वाश को साहेब की असलियत का पता नही था।

शक्तिमान सीरीयल का अंत

यह सीरीयल लगभग 8 वर्षो तक चला था और शायद ही कोई सीरीयल इतना लंबे समय काल तक अपने दर्शको का मनोरंजित कर पाया होगा, जैसा कि शक्तिमान ने किया था। इसके कुछ 336 एपिसोड प्रसारित किए गए थे। शक्तिमान का  अंतिम एपिसोड 27 मार्च 2005 को प्रसारित किया गया था। इस सीरीयल के बंद होने के बारे में कहना है कि, कई बच्चे शक्तिमान में दिखाए गए एक्टिंग को रियल लाइफ में कर रहें थे! जैसे शक्तिमान की तरह गोल-गोल घूमना, छत पर चढ़कर शक्तिमान को अपनी मदद के लिए पुकारना। सुनने में ऐसा भी आया था कई बच्चे रियल लाइफ में  शक्तिमान को अपनी मदद के लिए बुलाकर छत से कूद जाया करते थे, जिससे कितने ब्च्चो की जान चली गई। 
दूसरी ओर दूरदर्शन शक्तिमान के एक एपिसोड को प्रसारित करने का 4 लाख रूपया चार्ज करती था जो बाद में शक्तिमान की लोकप्रियता को देखते हुए इसे बढ़ाकर 10 लाख रूपया कर दिया गया था। बात जो भी हो शक्तिमान के बंद होने की असली बजह तो इसे निर्माता ही बता सकते है।


शक्तिमान के निर्मात

  1. Bheesam Internatinal
  2. Directer - Dinkar Jani
  3. Producer - Mukesh Khanaa
  4. Writer - Galib Hasan Bhopali, Brijmohan Pandey
दोस्तो अब सुनने में यह बात आ रही है कि मुकेश खन्ना बहुत जल्द शक्तिमान के उपर फिल्म बनाने जा रहे है, लेकिन यह फिल्म कब तक रिलीज होगी इसके बारे में कहना मुश्किल है।


October 02, 2024

Poos ki raat, munsi premchand ki kahania

Poos ki raat/Munshi premchand ki kahania/पूस की रात/हींदी कहानी



हल्कू ने आकर स्त्री से कहा—सहना आया है, लाओ जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे। मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली—तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कम्मल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो फसल पर दे देंगे! अभी नहीं। हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला—ला दे दे, गला तो छूटे। कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा। मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली—कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल? न जाने कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आए।

मैं रुपए न दूँगी, न दूँगी। हल्कू उदास होकर बोला—तो क्या गाली खाऊँ? मुन्नी ने तड़पकर कहा—गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है? मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था। उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली— तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस। हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपए कम्मल के लिए जमा किए थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

पूस की अँधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी। हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा—क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आए थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूँ? जानते थे, मै यहाँ हलुवा-पूरी खाने आ रहा हूँ, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आए। अब रोओ नानी के नाम को। जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलायी और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उसकी श्वान-बुद्धि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूँ-कूँ से नींद नहीं आ रही है।

हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा—कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे। यह राँड पछुआ न जाने कहाँ से बर्फ़ लिए आ रही है। उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा है! और एक-एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाए तो गर्मी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ़-कम्मल। मजाल है, जाड़े का गुज़र हो जाए। तकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!हल्कू उठा, गड्ढ़े में से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा। हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा—पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, जरा मन बदल जाता है। जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई आँखों से देखा। हल्कू—आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।

जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया। हल्कू को उसकी गर्म साँस लगी। चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कंपन होने लगा। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भाँति उसकी छाती को दबाए हुए था। जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थप थपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद में चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी। अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता। वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया। नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडें झोकों को तुच्छ समझती थी। वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूँकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया। हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता। कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति ही उछल रहा था। एक घंटा और गुज़र गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रहा है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जायँगे तब कहीं सबेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।

हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था। पतझड़ शुरु हो गई थी। बाग में पत्तियों को ढेर लगा हुआ था। हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियाँ बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ। रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देख तो समझे कोई भूत है। कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता।उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा तो पास आया और दुम हिलाने लगा। हल्कू ने कहा—अब तो नहीं रहा जाता जबरू। चलो बगीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें। टाँठे हो जायेंगे, तो फिर आकर सोएँगें। अभी तो बहुत रात है। जबरा ने कूँ-कूँ करके सहमति प्रकट की और आगे-आगे बगीचे की ओर चला।

बगीचे में खूब अँधेरा छाया हुआ था, और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से ओस की बूँदे टप-टप नीचे टपक रही थीं। एका-एक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया।/हल्कू ने कहा—कैसी अच्छी महक आई जबरू! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही है? जबरा को कहीं जमीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। उसे चिंचोड़ रहा था। हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया। हाथ ठिठुरे जाते थे। नंगे पाँव गले जाते थे। और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा। थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों अंधकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था। हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आए सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था। उसने जबरा से कहा—क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है?जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा—अब क्या ठंड लगती ही रहेगी? 'पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते।'जब्बर ने पूँछ हिलाई।'अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें। देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बच्चा, तो मैं दवा न करूँगा।'जब्बर ने उस अग्निराशि की ओर कातर नेत्रों से देखा! मुन्नी से कल न कह देना, नहीं तो लड़ाई करेगी। यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया। पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी। जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ।

हल्कू ने कहा—चलो-चलो इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ। वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया। पत्तियाँ जल चुकी थीं। बगीचे में फिर अँधेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी! हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।

जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था। उनके कूदने-दौड़ने की आवाजे साफ कान में आ रही थी। फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं हैं। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी। उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है।

कहाँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ! उसने जोर से आवाज लगाई—जबरा, जबरा। जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया। फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला। उसने जोर से आवाज लगाई—लिहो-लिहो! लिहो! जबरा फिर भूँक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं।

हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एका-एक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा।जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ़ से जकड़ रखा था। उसी राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढ़ कर सो गया।

सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गई थी और मुन्नी कह रही थी—क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया। हल्कू ने उठकर कहा—क्या तू खेत से होकर आ रही है? मुन्नी बोली—हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया। भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या हुआ? हल्कू ने बहाना किया—मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दरद हुआ कि मै ही जानता हूँ! दोनों फिर खेत के डाँड़ पर आए। देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों।दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था। मुन्नी ने चिंतित होकर कहा—अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी। हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा—रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा

September 29, 2024

Panch parmeshwar ki kahani पंच परमेश्वर की कहानी

पंच परमेश्वर की कहानी/Panch parmeshwar ki kahani/Munshi Premchand


जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गए थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गए थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।


इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरु जी की बहुत सेवा की थी, ख़ूब रकाबियाँ माँझीं, ख़ूब प्याले धोए। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आधे घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से। बस, गुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख़ के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेगा कि विद्योपार्जन में उसने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती?


मगर जुमराती शेख़ स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोटे के प्रताप से आज आस-पास के गाँवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी क़लम न उठा सकता था। हलके का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी, सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख़ अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।


जुम्मन शेख़ की एक बूढ़ी खाला थी। उनके पास कुछ थोड़ी-सी मिल्कियत थी, परंतु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लंबे-चौड़े वादे करके वह मिल्कियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक ख़ालाजान का ख़ूब आदर-सत्कार किया गया। उन्हें ख़ूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए गए। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गई पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन ख़ातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज़, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख़ भी निष्ठुर हो गए। अब बेचारी ख़ालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं।


बुढ़िया न जाने कब तक जिएगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानो मोल ले लिया है! बघारी दाल के बिना रोटियाँ नहीं उतरतीं! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गाँव मोल ले लेते।

कुछ दिन ख़ालाजान ने सुना और सहा पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी-गृहस्वामी के प्रबंध में दख़ल देना उचित न समझा। कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अंत में एक दिन ख़ाला ने जुम्मन से कहा- बेटा! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपए दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूँगी।


जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया- रुपए क्या यहाँ फलते हैं?

ख़ाला ने नम्रता से कहा- मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं?

जुम्मन ने गंभीर स्वर से जवाब दिया- तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तुम मौत से लड़कर आई हो?

खाला बिगड़ गईं उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हँसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाल की तरफ़ जाते देखकर मन ही मन हँसता है। वह बोले- हाँ, जरूर पंचायत करो फ़ैसला हो जाए। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं।


पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न था। आस-पास के गाँवों में ऐसा कौन था, जो उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर सके? आसमान के फ़रिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे नहीं।



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इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिए आस-पास के गाँवों में दौड़ती रहीं। कमर झुककर कमान हो गई थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना जरूरी था।

बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आँसू न बहाए हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हाँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर ज़माने को गालियाँ दीं! कहा- कब्र में पाँव लटके हुए हैं, आज मरे कल दूसरा दिन पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम है? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के-से बाल-इतनी सामग्री एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घामकर बेचारी अलगू चौधरी के पास आई। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली- बेटा, तुम भी दम भर के लिए मेरी पंचायत में चले आना।


अलगू- मुझे बुलाकर क्या करोगी? कई गाँव के आदमी तो आवेंगे ही।

खाला- अपनी विपद तो सबके आगे रो आई। अब आने-न-आने का अख़्तियार उनको है।

अलगू- यों आने को आ जाऊँगा मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा। खाला- क्यों बेटा?

अलगू- अब इसका क्या जवाब दूँ? अपनी ख़ुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।


खाला- बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?

हमारे सोए हुए धर्म-ज्ञान की सारी संपत्ति लुट जाए, तो उसे ख़बर नहीं होती, परंतु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सका, पर उसके हृदय में ये शब्द गूँज रहे थे- क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?


संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख़ जुम्मन ने पहले से ही फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक़्क़े-तम्बाकू आदि का प्रबंध भी किया था। हाँ, वह स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ ज़रा दूर पर बैठे हुए थे। जब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दबे हुए सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठी, तब यहाँ भी पंचायत शुरू हुई। फर्श की एक-एक अँगुल जमीन भर गई पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असंभव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुआँ निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ़ कोलाहल मच रहा था। गाँव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा हो गए थे।


पंच लोग बैठ गए, तो बूढ़ी ख़ाला ने उनसे विनती की-

'पंचों, आज तीन साल हुए मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भांजे जुम्मन के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना क़बूल किया। साल भर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा। पर अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी-दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दुःख सुनाऊँ? तुम लोग जो राह निकाल दो, उसी राह पर चलूँ। अगर मुझमें कोई ऐब देखो, तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। जुम्मन में बुराई देखो, तो उसे समझाओ, क्यों एक बेकस की आह लेता है ! मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊँगी।'


रामधन मिश्र, जिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गाँव में बसा लिया था, बोले- जुम्मन मियाँ, किसे पंच बदते हो? अभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगे वही मानना पडे़गा।


जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वे ही लोग दीख पड़े, जिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले- पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। ख़ालाजान जिसे चाहें, उसे बदें। मुझे कोई उज़्र नहीं।

खाला ने चिल्लाकर कहा- अरे अल्लाह के बंदे! पंचों का नाम क्यों नहीं बता देता? कुछ मुझे भी तो मालूम हो।


जुम्मन ने क्रोध से कहा- अब इस वक़्त मेरा मुँह न खुलवाओ। तुम्हारी बन पड़ी है, जिसे चाहो, पंच बदो।

ख़ालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गई, वह बोलीं- बेटा, ख़ुदा से डरो, पंच न किसी के दोस्त होते हैं, न किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न हो, तो जाने दो अलगू चौधरी को तो मानते हो? लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ।


जुम्मन शेख़ आनंद से फूल उठे, परंतु भावों को छिपाकर बोले- अलगू ही सही, मेरे लिए जैसे रामधन वैसे अलगू।

अलगू इस झमेले में फँसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले- ख़ाला, तुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है।


ख़ाला ने गंभीर स्वर में कहा- बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में ख़ुदा बसता है। पंचों के मुँह से जो बात निकलती है, वह ख़ुदा की तरफ़ से निकलती है।


अलगू चौधरी सरपंच हुए। रामधन मिश्र और जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़िया को मन में बहुत कोसा।

अलगू चौधरी बोले- शेख़ जुम्मन! हम और तुम पुराने दोस्त हैं! जब काम पड़ा, तुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी सेवा करते रहे हैं मगर इस समय तुम और बूढ़ी ख़ाला, दोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज़ करनी हो करो।


जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाज़ी मेरी है। अलगू यह सब दिखावे की बातें कर रहा है। अतएव शांत-चित्त होकर बोले- पंचों, तीन साल हुए खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें ता-हयात खाना-कपड़ा देना क़बूल किया था। ख़ुदा गवाह है, आज तक मैंने ख़ालाजान को कोई तकलीफ़ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी माँ के समान समझता हूँ। उनकी ख़िदमत करना मेरा फर्ज है मगर औरतों में जरा अनबन रहती है, उसमें मेरा क्या बस है? खालाजान मुझसे माहवार ख़र्च अलग माँगती हैं। जायदाद जितनी है, वह पंचों से छिपी नहीं। उससे इतना मुनाफ़ा नहीं होता है कि माहवार ख़र्च दे सकूँ। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार ख़र्च का कोई जिक्र नहीं। नहीं तो मैं भूलकर भी इस झमेले में न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख़्तियार है, जो फ़ैसला चाहें, करें।


अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पड़ता था। अतएव वह पूरा क़ानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह शुरू की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ता था। रामधन मिश्र इन प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठा हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गई कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा है? क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आवेगी?


जुम्मन शेख़ तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फ़ैसला सुनाया-


जुम्मन शेख़! पंचों ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति-संगत मालूम होता है कि ख़ालाजान को माहवार ख़र्च दिया जाए। हमारा विचार है कि ख़ाला की जायदाद से इतना मुनाफ़ा अवश्य होता है कि माहवार ख़र्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फ़ैसला है, अगर जुम्मन को ख़र्च देना मंज़ूर न हो, तो हिब्बानामा रद्द समझा जाए।


यह फ़ैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गए। जो अपना मित्र हो, वह शत्रु का व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे, इसे समय के हेर-फेर के सिवा और क्या कहें? जिस पर पूरा भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज़ न होते, तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता? यह हैज़ा-प्लेग आदि व्याधियाँ दुष्कर्मों के ही दंड हैं।


मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता की प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे- इसका नाम पंचायत है! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्ती, दोस्ती की जगह है, किंतु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी है, नहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती ।


इस फ़ैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखाई देते। इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही ज़मीन पर खड़ा था।


उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक-दूसरे की आवभगत ज़्यादा करने लगे। वे मिलते-जुलते थे, मगर उसी तरह, जैसे तलवार से ढाल मिलती है।


जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले।


अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती। जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द ही मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी गोई मोल लाए थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदर, बड़े-बड़े सींगों वाले थे। महीनों तक आस-पास के गाँव के लोग दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जुम्मन ने दोस्तों से कहा- यह दग़ाबाज़ी की सज़ा है। इंसान सब्र भले ही कर जाए, पर ख़ुदा नेक-ओ-बद सब देखता है। अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिला दिया है। चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया। उसने कहा- जुम्मन ने कुछ कर-करा दिया है। चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन ख़ूब ही वाद-विवाद हुआ। दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंग्य, वक्रोक्ति, अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डाँट-डपटकर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गए। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोटे से लिया।


अब अकेला बैल किस काम का? उसका जोड़ बहुत ढूँढ़ा गया, पर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गाँव में एक समझू साहु थे, वह इक्का-गाड़ी हाँकते थे। गाँव के गुड़-घी लादकर मंडी ले जाते, मंडी से तेल, नमक भर लाते, और गाँव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचा, यह बैल हाथ लगे तो दिन-भर में बेखटके तीन खेप हों। आजकल तो एक ही खेप में लाले पड़े रहते हैं। बैल देखा, गाड़ी में दौड़ाया, बाल-भौंरी की पहचान कराई, मोल-तोल किया और उसे लाकर द्वार पर बाँध ही दिया। एक महीने में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी ग़रज़ थी ही, घाटे की परवा न की।


समझू साहु ने नया बैल पाया, तो लगे उसे रगेदने। वह दिन में तीन-तीन, चार-चार खेपें करने लगे। न चारे की फ़िक्र थी, न पानी की, बस खेपों से काम था। मंडी ले गए, वहाँ कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन की बंशी बजती थी। बैलराम छठे-छमाहे कभी बहली में जोते जाते थे। ख़ूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहाँ बैलराम का रातिब था-साफ़ पानी, दली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ खली, और यही नहीं, कभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सहलाता था। कहाँ वह सुख-चैन, कहाँ यह आठों पहर की खपत ! महीने भर ही में वह पिस-सा गया। इक्के का जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हड्डियाँ निकल आयी थीं पर था वह पानीदार, मार की बरदाश्त न थी।


एक दिन चौथी खेप में साहु जी ने दूना बोझ लादा। दिन-भर का थका जानवर, पैर न उठते थे। पर साहु जी कोड़े फटकारने लगे। बस, फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़कर चला। कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि ज़रा दम ले लूँ; पर साहु जी को जल्द पहुँचने की फ़िक्र थी अतएव उन्होंने कई कोडे़ बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर ज़ोर लगाया; पर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ा, और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहु जी ने बहुत पीटा, टाँग पकड़कर खींचा, नथनों में लकड़ी ठूँस दी पर कहीं मृतक भी उठ सकता है? तब साहु जी को कुछ शक़ हुआ। उन्होंने बैल को ग़ौर से देखा, खोलकर अलग किया और सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुँचे। बहुत चीख़े-चिल्लाए पर देहात का रास्ता बच्चों की आँख की तरह साँझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नज़र न आया। आस-पास कोई गाँव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे-अभागे। तुझे मरना ही था, तो घर पहुँचकर मरता! ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा! अब गाड़ी कौन खींचे? इस तरह साहु जी ख़ूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थे, दो-ढाई सौ रुपए कमर में बँधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक के थे; अतएव छोड़कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गए। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पी, गाया। फिर हुक़्क़ा पिया। इस तरह साहु जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहे। अपनी जान में तो वह जागते ही रहे; पर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा, तो थैली ग़ायब! घबराकर इधर-उधर देखा, तो कई कनस्तर तेल भी नदारद! अफ़सोस में बेचारे ने सिर पीट लिया और पछाड़ खाने लगा। प्रातःकाल रोते-बिलखते घर पहुँचे। सहुआइन ने जब यह बुरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोयी, फिर अलगू चौधरी को गालियाँ देने लगी- निगोडे़ ने ऐसा कुलच्छनी बैल दिया कि जन्म-भर की कमाई लुट गई।


इस घटना को हुए कई महीने बीत गए। अलगू जब अपने बैल के दाम माँगते तब साहु और सहुआइन, दोनों ही झल्लाए हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते- वाह! यहाँ तो सारे जन्म की कमाई लुट गई, सत्यानाश हो गया, इन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया था, उस पर दाम माँगने चले हैं ! आँखों में धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल गले बाँध दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया है! हम भी बनिए के बच्चे हैं, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जाकर किसी गड्ढे में मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी मानता हो, तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। और क्या लोगे?


चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र हो जाते और साहु जी के बर्राने की पुष्टि करते। परंतु डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े। साहु जी बिगड़ कर लाठी ढूँढ़ने घर में चले गए। अब सहुआइन ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर में घुसकर किवाड़ बंद कर लिए। शोरगुल सुनकर गाँव के भलेमानस जमा हो गए। उन्होंने दोनों को समझाया। साहु जी को दिलासा देकर घर से निकाला। वह परामर्श देने लगे कि इस तरह से काम न चलेगा। पंचायत कर लो। जो कुछ तय हो जाए, उसे स्वीकार कर लो। साहु जी राजी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली।


पंचायत की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने शुरू किए। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी। वही संध्या का समय था। खेतों में कौए पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय था यह कि मटर की फलियों पर उनका कोई स्वत्व है या नहीं और जब तक यह प्रश्न हल न हो जाए, तब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यक समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में यह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्यों को उन्हें बेमुरौवत कहने का क्या अधिकार है, जब उन्हें स्वयं अपने मित्रों से दग़ा करने में भी संकोच नहीं होता।


पंचायत बैठ गई, तो रामधन मिश्र ने कहा- अब देरी क्या है? पंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरी किस-किस को पंच बदते हो। अलगू ने दीन भाव से कहा- समझू साहु ही चुन लें। समझू खड़े हुए और कड़ककर बोले- मेरी ओर से जुम्मन शेख़।


जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानो किसी ने अचानक थप्पड़ मार दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गए। पूछा- क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज़्र तो नहीं। चौधरी ने निराश होकर कहा- नहीं, मुझे क्या उज़्र होगा?


अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूलकर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।

पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता है; परंतु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, कितनी विचारशील, कितनी न्यायपरायण हो जाती है। इसका कारण उत्तरदायित्व का ज्ञान है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चिंतित रहते हैं! वे उसे कुल-कलंक समझते हैं परंतु थोडे़ ही समय में परिवार का बोझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांतचित्त हो जाता है, यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है।


जुम्मन शेख़ के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी ज़िम्मेदारी का भाव पैदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक़्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है-और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं!


पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किए। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परंतु दो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। इसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थे, जिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अंत में जुम्मन ने फ़ैसला सुनाया-


अलगू चौधरी और समझू साहु! पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक़्त उन्होंने बैल लिया, उसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिए जाते, तो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई अच्छा प्रबंध न किया गया।


रामधन मिश्र बोले- समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा है, अतएव उससे दंड लेना चाहिए। जुम्मन बोले- यह दूसरा सवाल है! हमको इससे कोई मतलब नहीं!


झगड़ू साहु ने कहा- समझू के साथ कुछ रियायत होनी चाहिए।

जुम्मन बोले- यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। यह रियायत करें, तो उनकी भलमनसी।

अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े हुए और ज़ोर से बोले- पंच-परमेश्वर की जय!

इसके साथ ही चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई- पंच-परमेश्वर की जय!

प्रत्येक मनुष्य जुम्मन की नीति को सराहता था- इसे कहते हैं न्याय! यह मनुष्य का काम नहीं, पंच में परमेश्वर वास करते हैं, यह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है?


थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आए और उनके गले लिपटकर बोले- भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राण-घातक शत्रु बन गया था; पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठकर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की ज़बान से ख़ुदा बोलता है। अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर हरी हो गई।

September 28, 2024

ठाकुर का कुंआ Thakur ka kuan hindi stories

ठाकुर का कुआँ Thakur Ka Kuan


जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है ! गंगी प्रतिदिन शाम को ही पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लाई, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। ज़रुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से? ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट बताएँगे।


साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं। जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला-अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ। गंगी ने पानी न दिया। ख़राब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी ख़राबी जाती रहती हैं। बोली- यह पानी कैसे पिओगे?  न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाए देती हूँ। जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-पानी कहाँ से लाएगी? ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे? 'हाथ-पाँव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे। ग़रीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे? 'इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किंतु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।


रात के नौ बजे थे। थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफ़िक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक ख़ास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ़ निकल गये। कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नक़ल ले आए। नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नक़ल नहीं मिल सकती। कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने का ढंग चाहिए।


इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची। कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतज़ार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ़ ये बदनसीब नहीं भर सकते। गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मज़बूरियों पर चोटें करने लगा—हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं?  इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फ़रेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे हैं। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं! कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख लें तो गजब हो जाए। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं?


कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आई थी। इनमें बात हो रही थी। 'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं। ''हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है। ''हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं। ''लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं?  दस-पाँच रुपए भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं! ''मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते-करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता। 'दोनों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आई। बेफ़िक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाज़ा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे।


 

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गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ़ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था। उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख़ कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफ़ी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।


घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। ज़रा भी आवाज़ न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहज़ोर पहलवान भी इतनी तेज़ी से न खींच सकता था। गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एका एक ठाकुर साहब का दरवाज़ा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा। गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं। ठाकुर कौन है, कौन है? पुकारते हुए कुएँ की तरफ़ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी। घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाए वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।

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